जश्न-ए-आजादी : कैसी थी दून और मसूरी में 15 अगस्त 1947 की सुबह?
देहरादून, 15 अगस्त 2025 : UNCUT24x7 के शुभारंभ के लिए पहली स्टोरी क्या हो, इसका चयन उलझन से भरा था। समझ में नहीं आ रहा था कि शुरुआत कहां से करें। आपाधापी से भरी दिनचर्या के बीच क्या रीडर्स को सीधे किसी घटना, दुर्घटना अथवा इंंवेट की न्यूज परोस दी जाए या कुछ और…….। फिर याद आया कि अरे ! UNCUT24x7 के ‘जन्म’ के लिए हमने वही दिन चुना, जिस दिन देश गुलामी की जंजीरों से मुक्त हुआ। तो रीडर्स के साथ संवाद की इससे बेहतर शुरुआत क्या होगी कि आजादी के दिन की पहली सुबह कैसी थी, दून और पहाडों की रानी मसूरी के लिए। तो चलिए, तारीख के उस सफर पर जो अनकही भले ही न हो, लेकिन अनसुनी जरूर है।
14 और 15 अगस्त 1947 की आधी रात को देश के ज्यादातर लोग नींद में थे, लेकिन दिल्ली में सुबह होने से पहले ही ‘नया सूरज’ अंगडाई लेने लगा था। सुबह हाते ही स्वतंत्र भारत की रोशनी में दून और मसूरी नींद से जागे तो माहौल अलग-अलग था। दून की सडकें भारत माता की जयकारों से गूंजने लगीं। आजादी के दीवाने प्रभात फेरी निकालने में जुट गए। मुख्य समारोह उसी जगह हुआ, जहां आज भी होता है। वही परेड ग्राउंड। बताते हैं कि इस एतिहासिक पल का साक्षी बनने के लिए मैदान में सैकडों की संख्या में लोग जमा हो गए। दून के मन्नूगंज मोहल्ले में भी उस दिन तिरंगा फहराया गया । यह सही है कि उस दिन दून में उत्साह चरम पर था, लेकिन माहौल पर विभाजन की त्रासदी का असर तारी था। यह साफ दिखायी भी देता था। अगस्त तो किसी तरह बीत गया, लेकिन सितंबर में हालात बिगड गए। 14 सितंबर के दिन शाम के वक्त एक शोभायात्रा को लेकर पल्टन बाजार में ऐसा उपद्रव शुरू हुआ कि प्रशासन कोे शहर में 72 घंटे का कर्फ्यू लगाना पडा। बाद में 19 सितंबर को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू देहरादून आए और दून वासियों को साहार्द बनाए रखने की नसीहत दी।
उस दिन दून में भले ही दीपावली मनी हो, लेकिन मसूरी खामोश थी। अपने यूरोपीयन अंदाज के लिए प्रसिद्ध मसूरी में सांप्रदायिक सदभाव को ठेस लग चुकी थी। शहर में कर्फ्यू था और किसी को भी जुलूस-प्रदर्शन की इजाजत नहीं दी गई। तब मसूरी के प्रशासक थे प्रख्यात स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और नेहरू मंत्रीमंडल के वरिष्ठ सदस्य रफी अहमद किदवई के छोटे भाई शफी अहमद किदवई। शफी अहमद किदवई की भतीजी अमीना किदवई अपने एक साक्षात्कार में मसूरी के उन दिनों को याद करते हुए बताती है कि उसी साल अक्टूबर में शफी अहमद अपने अंगरक्षक के साथ टहल रहे थे। इसी वक्त कुछ लोगों ने उनकी हत्या कर दी। घटना इतनी तेजी से घटी कि उनके अंगरक्षक को अपनी पिस्तौल निकालने का मौका तक नहीं मिला। हत्या के अगले दिन, मसूरी में दंगे भड़क उठे और शहर में एक बार फिर कर्फ्यू लगाना पडा। इसके बाद यह परिवार मसूरी छोडकर दिल्ली चला गया। खैर, वापस आजादी के दिन की ओर लौटते हैं। हालांकि मसूरी में प्रशासन का रवैया बेहद सख्त था, मगर आजादी के परवानों को कोई कैसे रोक पाता। उन्होंने तरीके खोज निकाले। कुछ होटल और घरों में राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया। कहते हैं कि मसूरी के एक प्रख्यात होटल में उस दिन निशुल्क भोज का भी आयोजन किया गया था।
ऐसे बीता था दून और मसूरी में स्वतंत्र भारत का पहला दिन। एक कहावत है बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध लेय। लेकिन इतिहास केवल बीते वक्त का दस्तावेज मात्र नहीं है, यह अतीत से निकला वह रास्ता है जो भविष्य की राह गढता है। आज की पीढी के लिए तारीख के उन पन्नों में झांकना इसीलिए भी जरूरी है क्यों कि वहीं हमारे वर्तमान का भ्रूण आकार ले रहा होता है।